फतुहा में बुनकरों की हालत बदतर…150 रुपए कमाना भी मुश्किल: 125 वर्षों से चल रहा उद्योग, कारीगर पलायन को मजबूर, कभी यही थी शहर की पहचान – Patna News

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आजादी से पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने चरखा से सूत काटना सिखाया था। वहीं आजादी के 75 साल बाद भी राजधानी पटना से 25 किलोमीटर दूर फतुहा में बुनकर चरखा से सूत काटकर भरण-पोषण कर रहे हैं। बुनकरों के लिए सरकार की योजनाओं के बाद भी इनकी हालत बद से बदतर

दरअसल, फतुहा कभी अपने वस्त्र बुनाई उद्योग के लिए प्रसिद्ध था। पहले इस शहर का नाम ‘फतवा’ था, जो पटवा/तत्वा समुदाय और उनके वस्त्र उद्योग से जुड़ा था। यहां लगभग 200 हैंडलूम चलते थे, जिनकी खटर-पटर की आवाज शहर की पहचान थी। वहीं अब इनकी स्थिति बेहद खराब हो गई है। दिनभर मेहनत करने के बाद भी 100 से 150 रुपए कमाना भी मुश्किल हो गया है।

दूसरे राज्य में भेजा जाता था कपड़ा

फतुहा में रेशम के धागों से उत्कृष्ट वस्त्र बनाए जाते थे। 1950 के दशक में जब खादी की मांग बढ़ी, तो बुनकरों ने रेशम के साथ खादी का उत्पादन भी शुरू किया। समय के साथ बुनकरों ने फर्श साफ करने वाले पोछे (फ्लोर डस्टर) बनाने की ओर रुख किया। यहां से धोती, गमछा, दोसूती चादर और शर्ट का कपड़ा राज्य के बाहर भी भेजा जाता था।

सूत से कपड़े की बुनाई करते बुनकर।

125 वर्षों से चल रहा उद्योग, अब रौनक नहीं

फतुहा के बुनकर चार पैडल वाले करघों का इस्तेमाल करते थे। यह तकनीक उनके उत्पादों को विशेष बनाती थी। 1960-65 के आसपास, कई बुनकरों ने खादी और रेशम का काम छोड़कर सिर्फ डस्टर बनाना शुरू कर दिया। लगभग 125 वर्षों से चल रहा यह उद्योग आज भी फतुहा की कुछ गलियों में जीवित है, लेकिन पहले जैसी रौनक नहीं रही।

अपने हितों की रक्षा और सामूहिक विकास के लिए, फतुहा के बुनकरों ने एक बुनकर सोसाइटी का भी गठन किया था। यह सोसाइटी न केवल उन्हें संगठित रखती थी, बल्कि सरकारी योजनाओं को प्राप्त करने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।

रेलवे जैसे बड़े संस्थानों से ऑर्डर भी इसी सोसाइटी के माध्यम से आते थे, जहां फतुहा के कुशल बुनकर उच्च गुणवत्ता वाले फ्लोर डस्टर भेजते थे। बाद में चीन के सस्ते उत्पादों के बाजार में आने से फतुहा के हाथ से बने डस्टर की मांग और कीमत धीरे-धीरे गिरने लगी।

अपने परिवार का भरण-पोषण मुश्किल होता देख, बुनकरों ने पलायन करना शुरू कर दिया। कुछ कोलकाता चले गए, कुछ दिल्ली, तो कुछ अन्य शहरों की ओर रुख कर गए, और उनमें से कई कभी वापस नहीं लौटे। कभी 200 से अधिक हैंडलूम से गुलजार रहने वाला फतुहा, आज सिर्फ 45 से 50 करघों तक सिमट गया है।

बुने हुए कपड़ों की कटिंग करते हुए कारीगर।

बुने हुए कपड़ों की कटिंग करते हुए कारीगर।

बुनकरों का छलका दर्द…

  • इस बारे में बात करते हुए, स्थानीय बुनकर हरिशंकर गुप्ता कहते हैं कि…पहले तो हम अपने हाथों से रोजी-रोटी कमा लेते थे, किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं थी। अब काम भी नहीं है और सरकार की जो थोड़ी बहुत मदद आती भी है, वह हम तक पहुंचते-पहुंचते आधी रह जाती है या फिर मिलती ही नहीं। हम बूढ़े हो रहे हैं, यह कला भी धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी।
  • स्थानीय बुनकर, जगदीश प्रसाद, अपनी आर्थिक तंगी बयां करते हुए कहते हैं कि पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी हम मुश्किल से 100 से 150 रुपए कमा पाते हैं। इस महंगाई में इतने पैसे में परिवार का गुजारा करना कितना मुश्किल है, यह तो हम ही जानते हैं।
  • बुनकर बेचन प्रसाद ने बताया कि हम पूरे दिन मेहनत करने के बाद डेढ़ सौ रुपए ही कमा पाते हैं। सरकार की ओर से लाभकारी योजनाएं चलाई जाती है,उसे भी बिचौलिया ही खा जाते हैं और हम जैसे वास्तविक बुनकरों तक नहीं पहुंच पाता है। जबकि मैंने अपना पूरा उम्र इसी काम में बीता दिया।
  • वहीं बुनकर संजय कुमार गुप्ता ने बताया कि हम लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला है। जिसके बाद हम लोगों ने PMO, CMO, DIC कार्यालय पटना सहित इससे संबंधित कई जगहों पर लिखित शिकायत किया था, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। हमारी कोई हाल-चाल लेने वाला भी नहीं है।
  • बुनकरों के काम में सहयोग करने वाली महिलाएं भी कम परेशान नहीं हैं। चरखा से धागा लपेटने का काम करने वाली सावित्री देवी बताती हैं कि दिन भर चरखा चलाते-चलाते कमर टूट जाती है, लेकिन मजदूरी मिलती है तो सिर्फ 80 रुपये। इतने कम पैसे में घर कैसे चलेगा, यह सोचकर ही रात में नींद नहीं आती।



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