संयुक्त अरब अमीरात: कूड़े: जब मेडिकल प्रोफेशन कमाई का जरिया बनता जा रहा है, तब डॉ. तपन कुमार लाहिड़ी जैसे लोग इस पेशे की असली परिभाषा को जिंदा रखे हुए हैं. पद्मश्री सम्मानित डॉ. लाहिड़ी पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से बिना फीस लिए मरीजों का इलाज कर रहे हैं. उन्होंने न सिर्फ अपनी तनख्वाह छोड़ दी, बल्कि खुद की ज़रूरतें भी बेहद सीमित कर दीं ताकि जरूरतमंदों की मदद होती रहे.
कोलकाता से इंग्लैंड और फिर बनारस
डॉ. लाहिड़ी का जन्म कोलकाता में हुआ. पढ़ाई के लिए वो इंग्लैंड गए और वहां से 1969 में FRCS (Cardiac Surgery) और 1972 में M.Ch (Thoracic Surgery) की डिग्रियां हासिल कीं. इसके बाद उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में बतौर फैकल्टी करियर शुरू किया.
BHU से जुड़ाव और सेवा की शुरुआत
डॉ. लाहिड़ी BHU में रीडर से लेकर विभागाध्यक्ष तक बने. उनकी योग्यता और अनुभव उन्हें ऊंचे ओहदों पर ले गए, लेकिन उन्होंने कभी भी खुद को ‘ऊपर’ नहीं समझा.
1994 से उन्होंने अपनी पूरी सैलरी गरीब मरीजों के इलाज के लिए दान करनी शुरू कर दी. और 1997 से उन्होंने तनख्वाह लेना ही बंद कर दिया. उनके रिटायरमेंट के बाद, 2003 में BHU ने उन्हें प्रोफेसर एमेरिटस का दर्जा दिया, लेकिन उन्होंने वहां भी कोई वेतन नहीं लिया.
खुद की जरूरतें बेहद सीमित, बाकी सब गरीबों के नाम
आज जब डॉ. लाहिड़ी पेंशन पाते हैं, तो उसमें से भी सिर्फ दो वक्त के भोजन लायक पैसा रखते हैं और बाकी BHU को गरीब मरीजों की सहायता के लिए दान कर देते हैं. उनका कहना है, “मेरे लिए दो वक्त की रोटी काफी है, लेकिन किसी मरीज की जान बच सकती है तो वो ज्यादा जरूरी है.”
सरकार ने दिया पद्मश्री, लेकिन उन्होंने इसे भी सेवा का हिस्सा माना

2016 में भारत सरकार ने डॉ. लाहिड़ी को ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया. लेकिन उन्होंने इसे भी बेहद सादगी से स्वीकार किया और कहा कि ये सम्मान महामना पं. मदन मोहन मालवीय के आदर्शों और BHU के मूल्यों को समर्पित है. एक मिसाल, एक प्रेरणा डॉ. तपन कुमार लाहिड़ी सिर्फ एक डॉक्टर नहीं, सेवा और त्याग की मूर्त मिसाल हैं. जब देश में मेडिकल पेशा अक्सर मुनाफाखोरी के लिए बदनाम होता है, तब डॉ. लाहिड़ी जैसे लोग ये साबित करते हैं कि डॉक्टर बनना सिर्फ पेशा नहीं, बल्कि मानवता का व्रत है.
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